मंगलवार, 26 फ़रवरी 2008

ब्रह्मात्‍मज के बहाने, इंटरनैट पर हिंदी

चिट्ठाकार पर देबाशीष जी ने एक कड़ी देकर इस समाचार की ओर ध्‍यान आकर्षित कराया है. समाचार इस बात पर केंद्रित है कि हिंदी की स्थिति क्‍या है? संदर्भ हैं हिंदी फिल्‍मों के जाने-माने समीक्षक अजय ब्रह्मात्‍मज द्वारा अपना ब्‍लॉग रोमन भाषा में लिखा जाना. मैं यहां ब्रह्मात्‍मज पर टिप्‍पणी नहीं कर रहा हूं बल्कि हिंदी के बारे में कुछ कहना चाहता हूं.

लेख में उन्‍हें यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि अपनी बात ज्‍यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए वे रोमन का इस्‍तेमाल कर रहे हैं. यह बात सुनने में उन्‍हें बुरी लग सकती है जो इंटरनैट पर हिंदी को फलते फूलते देखना चाहते हैं. लेकिन दूसरे नजरिए से देखें तो यह इस कड़वी सच्‍चाई का एक उदाहरण ही है कि इंटरनैट पर आज भी हिंदी के जरिए अपनी बात ज्‍यादा लोगों तक नहीं पहुंचाई जा सकती.

उन्‍होंने यह भ्रष्‍ट तरीका इसीलिए चुना कि उनके लेख वे लोग भी पढ़ सकें जो हिंदी तो समझते हैं लेकिन देवनागरी नहीं पढ़ सकते. यह वैसा है कि हम किसी औजार की मदद से अपने चिट्ठे को दूसरी लिपि में दिखाने के लिंक पाठकों को देते हैं. इसमें कुछ बुरा भी नहीं. तकनीक यदि आपकी अभिव्‍यक्ति को विस्‍तार देती है तो उसका इस्‍तेमाल किया ही जाना चाहिए. हां आप चाहें तो यह तर्क दे सकते हें कि ऐसा ही था तो वे हिंदी में ही लिख कर उसे रोमन में दिखाने का विकल्‍प चुन सकते थे.

बहरहाल उनका अपना विचार है. पर इस बहाने हमें इस बात पर गौर करने का मौका मिलता है कि क्‍या हिंदी की स्थिति सचमुच इतनी दयनीय है. ईमानदारी से देखें तो हमें यह सच मानना ही होगा कि इंटरनेट पर अभी भी हिंदी को अपना स्‍थान बनाने के लिए बहुत लंबी लड़ाई लड़ना शेष है. जर्मन, फ्रेंच या अन्‍य योरपियन भाषाएं बोलने वाले हिंदीभाषियों से कम होने के बावजूद ये भाषाएं इंटरनेट पर उतनी अनजानी नहीं हैं जितना हमारी भाषा. शायद इसकी वजह यही है कि हमने इस दिशा में उतने बड़े प्रयास अभी नहीं किए.

कुछ दिन पहले यह समाचार आया था कि इंटरनैट पर इस्‍तेमाल होने वाली दस सबसे लोकप्रिय भाषाओं में हिंदी कहीं नहीं है. इस समाचार को अंग्रेजी में यहां पढ़ें. हिंदी में पढ़ने के लिए यहां जा सकते हैं. तो इस स्थिति की मुख्‍य वजह क्‍या है? क्‍यों हिंदी में अपनी बात कहने के लिए रोमन का स‍हारा लेना पड़ता है? क्‍या देवनागरी इतनी कमजोर है कि इंटरनैट पर इसके माध्‍यम से कही गई बात लोगों तक नहीं पहुंच सकती? यदि कोई ऐसा सोचता है तो वह गलत है. अलबत्‍ता यह बात कुछ हद तक मानी जा सकती है कि देवनागरी में लिखी गई बात इंटरनैट पर कम लोगों तक पहुंचती है. शायद इसीलिए ब्रह्मात्‍मज जैसे लोगों को रोमन का सहारा लेना पड़ता है.

इसका एक पहलू तकनीकी जटिलताओं से जुड़ता है और इसकी वजह भी साफ है. यूनिकोड हिंदी के बारे में आम लोगों की जानकारी अभी भी कम है. अंग्रेजी की तुलना में इंटरनैट पर हिंदी में लिखना आज भी काफी श्रमसाध्‍य और जटिलता लिए है. जो इसके जानकार हैं उन्‍हें यह बात हास्‍यास्‍पद लग सकती है और वे इस बात से सहमत भी नहीं होंगे लेकिन सामान्‍य प्रयोक्‍ता के नजरिए से सोचा जाए (जो तकनीक के जानकार नहीं हैं) तो यह बात सही लगेगी. एक आम कंप्‍यूटर प्रयोक्‍ता से विंडोज में हिंदी लिखने के लिए किए जाने वाले समायोजन की उम्‍मीद करना कुछ ज्‍यादा ही है.

यह तथ्‍य इसलिए महत्‍वपूर्ण है क्‍योंकि इसी जटिलता के चलते हिंदी से संबंधित सामग्री इंटरनैट पर तुलनात्‍मक रूप से कम नजर आती है. हिंदी लेखन से संबंधित तकनीकी जटिलताओं को खत्‍म करने का काम अभी शुरू ही हुआ है और इसे एक निश्चित व सरल आकार लेने में कुछ और समय लगेगा. तभी इंटरनैट पर हिंदी की उपस्थिति बढ़ेगी और उपलब्‍ध सामग्री की विश्‍वसनीयता भी. लेकिन इसके बावजूद कि हिंदी के साथ कुछ जटिलताएं हैं, रोमन में लिखने का विचार एकदम गलत है. इससे स्थिति को बदलने में कोई सहायता नहीं मिलेगी.

इंटरनैट पर आज भी हिंदी का विश्‍वसनीय संदर्भ भंडार नहीं है. हिंदी वि‍की जैसी अवधारणा का जन्‍म हो चुका है और विस्‍तार जारी है लेकिन निराश कर देने वाली बात यह है कि इसे समृद्ध करने वाले लोगों का टोटा है. हिंदी के चिट्ठों की संख्‍‍या अभी मुट्ठी भर है और इसे किसी विश्‍वसनीय संदर्भ स्रोत का रूप लेने में शायद कई बरस लगेंगे. हिंदी विकी पर काम करने वाले स्‍वयंसेवकों की अपनी प्राथमिकताएं हैं और ज्‍यादातर जानकारी बहुत सीमित संदर्भों में ही संग्रहित की जा रही है. यहां अभी करीब 31 हजार पेज की सामग्री है. विस्‍तृत जानकारी के लिए यहां देखें. जाहिर है कि इंटरनैट पर हिंदी की उपस्थिति अंग्रेजी की तुलना में अभी नगण्‍य है.

8 टिप्‍पणियां:

debashish ने कहा…

संजय मेरा तो मानना है कि चिंता जायज है क्योंकि जितने हिन्दी भाषी हैं उसके मुकाबले सामग्री बहुत कम है नेट पर। वैसे बता दूं की अजय जी का हिन्दी चिट्ठों के बारे में न बताना मुझे इसलिये अखरा क्योंकि वे स्वयं हिन्दी में कई दिनों से चवन्नी चैप नाम से ब्लॉग लिख रहे हैं, लोकमंच पर भी लिखते रहे हैं। विकीपीडिया का भी नाम लिया गया जबकि अनुनाद, राजीव, पूर्णिमा वर्मन, विजय ठाकुर, मितुल जैसे अनेक धुनी लोग अनवरत इसमें योगदान दे रहे हैं पर फिर भी यह प्रयास कम हैं, जिमी वेल्स ने हाल ही में कहा कि "While there are 280 million Hindi speaking people, there are just about 15,806 articles in Hindi on the site"

debashish ने कहा…

विकीपीडिया का भी नाम "नहीं" लिया गया पढ़ा जाय।

Tarun ने कहा…

सबसे ज्यादा समस्या इन्ही लोगों के की है जो खाते हिंदी की हैं लेकिन इसे बोलने लिखने में कहते हैं लोग नही हैं जानने वाले। हिन्दी पढ़ने और लिखने में लगने वाली शर्म जब तक नही हटेगी कुछ नही होने वाला। इंडिया वाले सारी बातें पश्चिम से सिखते हैं चाहे उन सबका सोर्स इंडिया ही क्यों ना हो (जैसे योगा) वैसे ही हिन्दी भी सिखेंगे।
आजकल हिंदी यहाँ अमेरिका में कई स्कूलों में भी सिखायी जाती है जहाँ भारतीय ज्यादा हैं, आउटसोर्सिंग के चलते कई अमेरिकी भी हिन्दी सिखना चाहते हैं, ऐसे ही हो सकता है फैशन की तरह इंडिया में भी क्रेज चल जाये।

अनुनाद सिंह ने कहा…

"क्‍यों हिंदी में अपनी बात कहने के लिए रोमन का स‍हारा लेना पड़ता है? वजह भी साफ है. इंटरनैट पर आज भी हिंदी का विश्‍वसनीय संदर्भ भंडार नहीं है."


उपरोक्त उद्धरण में प्रश्न और उत्तर का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं दिखता; इसलिये मुझे यह बात उटपटांग लग रही है।

अनिल रघुराज ने कहा…

संजय जी, असली बात संप्रेषण की है। जीवन स्थितियां देश-समाज को लाकर जहां खड़ा कर देंगी, उसी की हद में हमें संप्रेषण करना है। अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के क्रम में ही भाषा बनती-बिगड़ती है। हिंदी भी इसी क्रम में बढ़ेगी। क्या कीजिएगा, चार-पांच साल पहले तक हिंदी टीवी न्यूज के एंकर रोमन में लिखा हुआ ही पढ़ते थे। लेकिन अब शायद कोई भी एंकर ऐसा करने की जुर्रत नहीं कर सकता।

संजय बेंगाणी ने कहा…

करना चाहिए करना चाहिए...तो ठीक है. अब समय आ गया है कोई यह कहे की हम यह कर रहें है, आप क्या कर रहे हो?

यहाँ तो ऐसा है की योगदान देना शुरू किया नहीं की पुरस्कृत होने का जुगाड़ पहले करने लगते है.

Sanjay Karere ने कहा…

@ अनुनाद सिंह
बीच का कुछ हिस्‍सा छूटने के कारण ऊटपटांग हो गया था... सुधार दिया है.

बेनामी ने कहा…

maaf karen.aapka yah aalekh mere paas roman mein hi aaya.http://en.girgit.chitthajagat.in/sanjay-uvach.blogspot.com/2008/02/1.htmlmain iska doosra hissa bhi padhna chahoonga.mere udharan mein sandarbh kat gaya hai.PFC par main roman mein hinhdi likhta hoon.

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संजय उवाच को मैने अपने जालस्‍थल पर स्‍थानांतरित कर दिया है. नया पता यह है.... Sanjay Uvach http://www.sanjayuvach.com