उड़ीसा का ऐसी आगजनी से पुराना नाता है. ईसा मसीह के जन्मदिन पर कंधमाल में चर्चों पर हमले कर आग लगा दी गई. कुछ साल पहले ऐसी ही एक आग में ग्राहम स्टेंस और उनके बेटे को जिंदा जलना पड़ा था. हत्यारा आज भी जीवित है और हिंदुत्व के रखवालों ने उसे हीरो बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. यह इंसानी असहिष्णुता की कौन सी कहानी है जो बार-बार लिखी जाती है? यह समझना मुश्किल है कि गिरिजाघरों को जला कर किस हिंदुत्व की रक्षा की जा रही है?
हम गांधी को भुला चुके हैं लिहाजा आज उनकी दी हुई सीखों को उद्धृत करना शायद अप्रासांगिक हो चुका है. लेकिन गांधी कभी अप्रासंगिक नहीं होंगे. उस महात्मा ने कुछ दशक पहले कहा था कि ईश्वर सत्य नहीं बल्कि सत्य ही ईश्वर है. तो गिरिजाघरों की आग से जो सत्य निकल कर सामने आ रहा है क्या वही ईश्वर है?
यह कौन सा दर्शन है? हम मंदिर बनाने के लिए मस्जिद तोड़ देते हैं. गरिजाघरों को आग लगा देते हैं. हम किस सत्य की स्थापना कर रहे हैं? यह असहिष्णुता और उन्माद हिंदुत्व तो नहीं. तो फिर यह है क्या? यह किस समाज और संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है? यह निश्चित रूप से भारतीय समाज की परंपरा और संस्कृति तो नहीं है.
इन सवालों के जवाब मुझे भी नहीं मालुम. जिस देश की गंगा-जमुनी संस्कृति में सर्वधर्म समभाव और भाईचारा सदियों से समाहित रहा हो, वहां धर्म के नाम पर ऐसा उन्माद, ऐसी बर्बरता कई सवालों को जनम देती है. इस समाज को यह स्वयं तय करना होगा कि इसका सत्य क्या है? अयोध्या, गोधरा, उड़ीसा ... अब और कहां? कितनी आग और?
कभी किसी धर्मग्रंथ में पढ़ा था कि ईश्वर एक है, उसके नाम अलग हैं, रूप अलग हैं. यह भी पढ़ा है कि हर इंसान के अंदर परमात्मा का अंश है, जिसे आत्मा कहते हैं. और यह भी कि आत्मा कभी मरती नहीं. मतलब यह कि सभी इंसान परमात्मा का अंश हैं. तो यह आतंकवाद, नक्सलवाद, जातीय हिंसा और सांप्रदायिकता कहां से आई? एक इंसान की दूसरे के प्रति नफरत की इस आग में इंसानियत और धर्म कहां है?
कितने और कश्मीर, कितने और गोधरा, कितने और गुजरात? कितने और धमाके? कितनी और लाशें? कितने और लादेन? कितने और दारासिंह? किस सत्य की तलाश है ये? कब रुकेगी यह नफरत की आंधी? मेरे पास इन सवालों के जवाब नहीं हैं. वह एक वाक्य ही फिर याद आ रहा है: हे ईश्वर इन्हें क्षमा कर देना क्योंकि ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं.....
संजय का कार्य सब कुछ देखना और उन्हें सुनाना है जो नहीं देख पाए. संजय ने तब भी यही किया था, अब भी यही कर रहा है.
बुधवार, 26 दिसंबर 2007
शनिवार, 22 दिसंबर 2007
तो मेरी मौत कब होगी? मैने जान लिया
So when am I going to die? यह एक ऐसा सवाल है शायद जिसके बारे में शायद कोई सोचना भी नहीं चाहता लेकिन मौत ही जीवन का अंतिम सत्य है. इसलिए मैने इसे जानने का फैसला किया. लेकिन मेरा अनुरोध है कि जो कमजोर हृदय हों वे इस पोस्ट को आगे नहीं पढ़ें.
भला हो इंटरनैट का, यहां हर चीज की जानकारी उपलब्ध है. मौत की जानकारी भी मिलती है, बशर्ते आप जानने को उत्सुक हों. सो मैने अपनी मौत का समय जान लिया है... मार्च 02, सन् 2034 को 67 साल की उम्र में मेरी नेचरल मौत होना मुकर्रर है, बशर्ते किसी और वजह से मेरी असायमिक मौत ना हो.
जानता हूं...... जानता हूं...... आपको यह बकवास लग रही है लेकिन मेरी नजर में इसका औचित्य है. यदि हमें अपने मरने के समय का एक अनुमान हो जाए, तो जिंदगी में कई ऐसे कामों को अधूरा छूटने से बचाया जा सकता है जो आमतौर पर नहीं हो पाते. कोई अपनी वसीयत करने से चूक जाता है, तो कोई तीर्थ यात्रा नहीं कर पाता. किसी का कोई अरमान अधूरा छूट जाता है तो कोई अपने पीछे अधूरे कामों का ऐसा अंबार छोड़ जाता है कि उसके नाते रिश्तेदार परेशान होते रहते हैं और मरने वाले को कोसते रहते हैं.
मतलब सिर्फ इतना कि मौत कोई ऐसी शै नहीं कि हम उससे हमेशा डरते ही रहें और इतना ज्यादा डरें कि उसके बारे में कुछ सोच भी नहीं पाएं. बकौल गालिब मौत का एक दिन मुकर्रर है, तो क्यों न उसी के हिसाब से प्लानिंग कर ली जाए. कि मरते वक्त कुछ अरमान दिल में रहने का मलाल न रहे.
तो मेरे पास 27 साल और हैं इस जिंदगी को जीने के लिए. अब आपकी उस जिज्ञासा का अंत कर देता हूं कि मैने अपनी मौत का समय कैसे जाना. बहुत आसान है. लेकिन मेरा फिर अनुरोध है कि जो कमजोर हृदय हों, वे इस पोस्ट को आगे नहीं पढ़ें ना ही उस लिंक पर जाएं जहां मौत के समय की जानकारी मिलेगी. बहरहाल, यदि आपको जानना हो तो बस यहां क्लिक करें मौत का समय मालुम चल जाएगा.
इसके अलावा यदि आपकी रुचि हो तो आप यह भी जान सकते हैं कि दुनिया में हर क्षण किसा-किस कारण से कितनी मौतें हो रही हैं. यानि मौत का रीयल टाइम काउंटर.
मौत की उम्र जानिए एक अन्य रोचक पहेली से.
डिस्क्लेमर: इस लेख का उद्देश्य मृत्यु के बारे में दुष्प्रेरणा पैदा करना कतई नहीं है. अपनी बुद्धि का इस्तेमाल कर स्वेच्छा से लिंक पर जाएं.
भला हो इंटरनैट का, यहां हर चीज की जानकारी उपलब्ध है. मौत की जानकारी भी मिलती है, बशर्ते आप जानने को उत्सुक हों. सो मैने अपनी मौत का समय जान लिया है... मार्च 02, सन् 2034 को 67 साल की उम्र में मेरी नेचरल मौत होना मुकर्रर है, बशर्ते किसी और वजह से मेरी असायमिक मौत ना हो.
जानता हूं...... जानता हूं...... आपको यह बकवास लग रही है लेकिन मेरी नजर में इसका औचित्य है. यदि हमें अपने मरने के समय का एक अनुमान हो जाए, तो जिंदगी में कई ऐसे कामों को अधूरा छूटने से बचाया जा सकता है जो आमतौर पर नहीं हो पाते. कोई अपनी वसीयत करने से चूक जाता है, तो कोई तीर्थ यात्रा नहीं कर पाता. किसी का कोई अरमान अधूरा छूट जाता है तो कोई अपने पीछे अधूरे कामों का ऐसा अंबार छोड़ जाता है कि उसके नाते रिश्तेदार परेशान होते रहते हैं और मरने वाले को कोसते रहते हैं.
मतलब सिर्फ इतना कि मौत कोई ऐसी शै नहीं कि हम उससे हमेशा डरते ही रहें और इतना ज्यादा डरें कि उसके बारे में कुछ सोच भी नहीं पाएं. बकौल गालिब मौत का एक दिन मुकर्रर है, तो क्यों न उसी के हिसाब से प्लानिंग कर ली जाए. कि मरते वक्त कुछ अरमान दिल में रहने का मलाल न रहे.
तो मेरे पास 27 साल और हैं इस जिंदगी को जीने के लिए. अब आपकी उस जिज्ञासा का अंत कर देता हूं कि मैने अपनी मौत का समय कैसे जाना. बहुत आसान है. लेकिन मेरा फिर अनुरोध है कि जो कमजोर हृदय हों, वे इस पोस्ट को आगे नहीं पढ़ें ना ही उस लिंक पर जाएं जहां मौत के समय की जानकारी मिलेगी. बहरहाल, यदि आपको जानना हो तो बस यहां क्लिक करें मौत का समय मालुम चल जाएगा.
इसके अलावा यदि आपकी रुचि हो तो आप यह भी जान सकते हैं कि दुनिया में हर क्षण किसा-किस कारण से कितनी मौतें हो रही हैं. यानि मौत का रीयल टाइम काउंटर.
मौत की उम्र जानिए एक अन्य रोचक पहेली से.
डिस्क्लेमर: इस लेख का उद्देश्य मृत्यु के बारे में दुष्प्रेरणा पैदा करना कतई नहीं है. अपनी बुद्धि का इस्तेमाल कर स्वेच्छा से लिंक पर जाएं.
बुधवार, 5 दिसंबर 2007
डॉक्टर साब, क्या गांवों में इंसान नहीं रहते?
सरकार ने कहा कि डॉक्टरों को एक साल गांवों में काम करने के बाद ही उपाधि दी जाएगी तो इसे लेकर हाय तौबा शुरू हो गई. लड़कियों ने मंत्री महोदय को शादी करने के लिए प्रपोज़ कर के विरोध जताया. ठीक है भई लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी की सुविधा जो मिली है. लेकिन क्या गांवों में काम करने को कहना इतनी बड़ी सजा है कि आपको इस हद तक विरोध जताने के लिए जाना पड़े?
क्या आपने नहीं पढ़ा कभी कि भारत गांवों में रहता है? डॉक्टर गांव में जाकर काम क्यों नहीं करें? क्या गांवों में लोग नहीं रहते या ग्रामीण बीमार नहीं होते या भावी डॉक्टरों ने यह मान लिया है कि उन्हें इलाज कराने के लिए चिकित्सा सुविधाओं की दरकार नहीं? शायद विराध करने वालों को नहीं मालुम कि सच क्या है?
इक्कीसवीं सदी के इस तेजी से विकास के प्रथ पर अग्रसर भारत के गांवों में आज भी मच्छर के काटने जैसी बीमारी (नाम तो ज्ञानी डॉक्टरों को मालुम ही होगा) से हर साल हजारों मौत हो जाती हैं. अपने नन्हे बच्चे की समय पर इलाज नहीं मिलने के कारण मौत होने के बाद बाप उसकी लाश कंधे पर रख कर बीस किमी दूर ले जाने पर विवश होता है.
आए दिन अखबारों में खबरें छपती हैं कि महिला ने अस्पताल के बाहर पेड़ के नीचे बच्चे को जन्म दिया या किसी झोलाछाप डॉक्टर के दिए इंजेक्शन से मरीज की मौत हो गई. मतलब सिर्फ इतना कि गांवों में ही चिकित्सा सुविधाओं को बढ़ाने और अच्छे चिकित्सकों की जरूरत ज्यादा है.
सवाल यह है कि जब शिक्षक पढ़ाने के लिए गांवों में जा सकते हैं, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता वहां काम कर सकते हैं, पटवारी और पंचायत सचिव रह सकते हैं, तो डॉक्टर क्यों नहीं? क्या ये महान लोग नियम कायदों से ऊपर हैं? जो गांव में रहते हैं वे भी इंसान ही हैं और इसी देश के वासी हैं. यानि उन्हें भी वे सब सुविधाएं पाने का पूरा हक है जो सरकार शहरों में रहने वालों को देती है.
इस प्रावधान को बदला नहीं जाना चाहिए. पैसे कमाने के लालच में एक साल के लिए गांवों में काम नहीं करने के लिए बेजा दबाव बना रहे डॉक्टरों के सामने सरकार को झुकना नहीं चाहिए क्योंकि यह उन करोड़ों लोगों के साफ नाइंसाफी होगी जो गांवों में रहते हैं और अच्छी चिकित्सा सुविधा से वंचित हैं. जो गांव में काम नहीं करना चाहता वह डॉक्टर भी नहीं बने.
क्या आपने नहीं पढ़ा कभी कि भारत गांवों में रहता है? डॉक्टर गांव में जाकर काम क्यों नहीं करें? क्या गांवों में लोग नहीं रहते या ग्रामीण बीमार नहीं होते या भावी डॉक्टरों ने यह मान लिया है कि उन्हें इलाज कराने के लिए चिकित्सा सुविधाओं की दरकार नहीं? शायद विराध करने वालों को नहीं मालुम कि सच क्या है?
इक्कीसवीं सदी के इस तेजी से विकास के प्रथ पर अग्रसर भारत के गांवों में आज भी मच्छर के काटने जैसी बीमारी (नाम तो ज्ञानी डॉक्टरों को मालुम ही होगा) से हर साल हजारों मौत हो जाती हैं. अपने नन्हे बच्चे की समय पर इलाज नहीं मिलने के कारण मौत होने के बाद बाप उसकी लाश कंधे पर रख कर बीस किमी दूर ले जाने पर विवश होता है.
आए दिन अखबारों में खबरें छपती हैं कि महिला ने अस्पताल के बाहर पेड़ के नीचे बच्चे को जन्म दिया या किसी झोलाछाप डॉक्टर के दिए इंजेक्शन से मरीज की मौत हो गई. मतलब सिर्फ इतना कि गांवों में ही चिकित्सा सुविधाओं को बढ़ाने और अच्छे चिकित्सकों की जरूरत ज्यादा है.
सवाल यह है कि जब शिक्षक पढ़ाने के लिए गांवों में जा सकते हैं, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता वहां काम कर सकते हैं, पटवारी और पंचायत सचिव रह सकते हैं, तो डॉक्टर क्यों नहीं? क्या ये महान लोग नियम कायदों से ऊपर हैं? जो गांव में रहते हैं वे भी इंसान ही हैं और इसी देश के वासी हैं. यानि उन्हें भी वे सब सुविधाएं पाने का पूरा हक है जो सरकार शहरों में रहने वालों को देती है.
इस प्रावधान को बदला नहीं जाना चाहिए. पैसे कमाने के लालच में एक साल के लिए गांवों में काम नहीं करने के लिए बेजा दबाव बना रहे डॉक्टरों के सामने सरकार को झुकना नहीं चाहिए क्योंकि यह उन करोड़ों लोगों के साफ नाइंसाफी होगी जो गांवों में रहते हैं और अच्छी चिकित्सा सुविधा से वंचित हैं. जो गांव में काम नहीं करना चाहता वह डॉक्टर भी नहीं बने.
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
चिट्ठे का नया प्रकाशन स्थल
संजय उवाच को मैने अपने जालस्थल पर स्थानांतरित कर दिया है. नया पता यह है.... Sanjay Uvach http://www.sanjayuvach.com
-
चिट्ठाकार पर देबाशीष जी ने एक कड़ी देकर इस समाचार की ओर ध्यान आकर्षित कराया है. समाचार इस बात पर केंद्रित है कि हिंदी की स्थिति क्या ह...
-
इंटरनैट पर हिंदी को भले ही आज प्रथम दस भाषाओं में शुमार नहीं किया जा रहा हो लेकिन सच यह है कि इंटरनैट पर हिंदी के चिट्ठों की दुनिया का दिन द...
-
उड़ीसा का ऐसी आगजनी से पुराना नाता है. ईसा मसीह के जन्मदिन पर कंधमाल में चर्चों पर हमले कर आग लगा दी गई. कुछ साल पहले ऐसी ही एक आग में ग्रा...