बुधवार, 5 दिसंबर 2007

डॉक्‍टर साब, क्‍या गांवों में इंसान नहीं रहते?

सरकार ने कहा कि डॉक्‍टरों को एक साल गांवों में काम करने के बाद ही उपाधि दी जाएगी तो इसे लेकर हाय तौबा शुरू हो गई. लड़कियों ने मंत्री महोदय को शादी करने के लिए प्रपोज़ कर के विरोध जताया. ठीक है भई लोकतंत्र में अभिव्‍‍यक्ति की आजादी की सुविधा जो मिली है. लेकिन क्‍या गांवों में काम करने को कहना इतनी बड़ी सजा है कि आपको इस हद तक विरोध जताने के लिए जाना पड़े?

क्‍या आपने नहीं पढ़ा कभी कि भारत गांवों में रहता है? डॉक्‍टर गांव में जाकर काम क्‍यों नहीं करें? क्‍या गांवों में लोग नहीं रहते या ग्रामीण बीमार नहीं होते या भावी डॉक्‍टरों ने यह मान लिया है कि उन्‍हें इलाज कराने के लिए चिकित्‍सा सुविधाओं की दरकार नहीं? शायद विराध करने वालों को नहीं मालुम कि सच क्‍या है?

इक्‍कीसवीं सदी के इस तेजी से विकास के प्रथ पर अग्रसर भारत के गांवों में आज भी मच्‍छर के काटने जैसी बीमारी (नाम तो ज्ञानी डॉक्‍टरों को मालुम ही होगा) से हर साल हजारों मौत हो जाती हैं. अपने नन्‍हे बच्‍चे की समय पर इलाज नहीं मिलने के कारण मौत होने के बाद बाप उसकी लाश कंधे पर रख कर बीस किमी दूर ले जाने पर विवश होता है.

आए दिन अखबारों में खबरें छपती हैं कि महिला ने अस्‍पताल के बाहर पेड़ के नीचे बच्‍चे को जन्‍म दिया या किसी झोलाछाप डॉक्‍टर के दिए इंजेक्शन से मरीज की मौत हो गई. मतलब सिर्फ इतना कि गांवों में ही चिकित्‍सा सुविधाओं को बढ़ाने और अच्‍छे चिकित्‍सकों की जरूरत ज्‍यादा है.

सवाल यह है कि जब शिक्षक पढ़ाने के लिए गांवों में जा सकते हैं, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता वहां काम कर सकते हैं, पटवारी और पंचायत सचिव रह सकते हैं, तो डॉक्‍टर क्‍यों नहीं? क्‍या ये महान लोग नियम कायदों से ऊपर हैं? जो गांव में रहते हैं वे भी इंसान ही हैं और इसी देश के वासी हैं. यानि उन्‍हें भी वे सब सुविधाएं पाने का पूरा हक है जो सरकार शहरों में रहने वालों को देती है.

इस प्रावधान को बदला नहीं जाना चाहिए. पैसे कमाने के लालच में एक साल के लिए गांवों में काम नहीं करने के लिए बेजा दबाव बना रहे डॉक्‍टरों के सामने सरकार को झुकना नहीं चाहिए क्‍योंकि यह उन करोड़ों लोगों के साफ नाइंसाफी होगी जो गांवों में रहते हैं और अच्‍छी चिकित्‍सा सुविधा से वंचित हैं. जो गांव में काम नहीं करना चाहता वह डॉक्‍टर भी नहीं बने.

2 टिप्‍पणियां:

Batangad ने कहा…

संजयजी
इस विषय पर लिखने के लिए मैं भी उद्वेलित हो रहा था। अच्छा हुआ आपने लिखा। सचमुच ये बुद्धि की बलिहारी ही है कि डॉक्टर अपने इस कृत्य को सही भी बता रहे हैं।

सचिन श्रीवास्तव ने कहा…

अजनबी तुम जाने पहचाने से लगते हो? कौन हो तुम जो दिल में समाए जाते हो अपने शब्दों की तरह?

चिट्ठे का नया प्रकाशन स्‍थल

संजय उवाच को मैने अपने जालस्‍थल पर स्‍थानांतरित कर दिया है. नया पता यह है.... Sanjay Uvach http://www.sanjayuvach.com