
मेरे शहर में बदअमनी फैली हुई है क्योंकि एक शख्स नाहक मौत का शिकार बन गया. सरेआम खुद पर कैरॉसिन डालकर खुद को आग लगा ली. सैकड़ों लोगों की भीड़ ने देखा पर जल जाने दिया. जहां घटना हुई वह कलेक्टर और एसपी के दफ्तरों के बीच कचहरी परिसर का केंद्र स्थल है और उस समय वहां क्षेत्र के सांसद अपना साप्ताहिक जनता दरबार लगाए बैठे थे.
करीब चालीस साल का वह इंसान दलित वर्ग से था. और उसने जान क्यों दे दी? मृतक एक प्राइमरी स्कूल के पालक शिक्षक संघ (पीटीए) का अध्यक्ष था. पिछले कई सालों से स्कूल की बिल्डिंग नहीं होने के कारण उसे एक मंदिर के परिसर में अस्थाई इंतजाम करके चलाया जा रहा है. पीटीए अध्यक्ष मांग कर रहा था कि स्कूल की बिल्डिंग बनवा दी जाए.
इस मांग के लिए पिछले साल भर से भी ज्यादा समय से वह प्रशासनिक अधिकारियों के हाथ पैर जोड़ रहा था, उनके ऑफिसों के चक्कर लगा रहा था लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई. हारकर उसने पिछले महीने प्रशासन को लिखित सूचना दे दी कि अमुक तारीख तक उसकी मांग पूरी नहीं होने पर वह अमुक स्थान पर आत्मदाह कर लेगा. मांग पूरी नहीं हुई और उसने निर्धारित जगह जाकर पूर्व घोषित समय पर दिन दहाड़े आत्मदाह कर लिया.
छह दिन तक अस्पताल में जिंदगी के मौत से संघर्ष के बाद रविवार को उसकी इहलीला समाप्त हो गई. जिस वक्त मैं यह शब्द लिख रहा हूं उसका मृत शरीर पूर्ण दाह की प्रतीक्षा में रखा हुआ है क्योंकि अब उसकी मौत पर राजनीति की बिसात बिछ चुकी है. दिन भर शहर में उसके समुदाय के लोग सड़कों पर प्रदर्शन करते रहे. शाम को जब शव आया तो अंतिम संस्कार करने से रोक दिया गया क्योंकि प्रशासन से उसकी मौत का मुआवजा मांगा जा रहा है.
मैं इस मामले को सिर्फ इसलिए विस्तार से लिख रहा हूं क्योंकि यह हमारे समाज के कई कड़वे दुर्भाग्यों का दस्तावेज है. एक इंसान को स्कूल की बिल्डिंग बनवाने के लिए अपनी जान देनी पड़ी और तुर्रा यह कि प्रशासन अब भी कह रहा है कि उस इलाके में जमीन उपलब्ध नहीं है. राज्य सरकार दावे करती है कि कोई भी स्कूल भवन विहीन नहीं रहेगा और यहां ऐसे कई दर्जन स्कूल हैं जिनका भवन नहीं है.
प्रशासन अब लीपा पोती करने की तैयारी में जुटा है. जांच कर ली गई, कोई बलि का बकरा तलाशा जाएगा. लेकिन एक इंसान बेवक्त मारा गया, जो अब वापस नहीं आएगा. उसकी पत्नी बेवा और बच्चे अनाथ हो गए, उन्हें अब उसका साथ कभी नहीं मिल सकेगा. लेकिन यह गूंगा-बहरा समाज और संवेदनहीन प्रशासन इससे कतई प्रभावित नहीं हैं.
ये किस तरह का समाज हमने बना लिया है, जहां मानवीय संवेदनाएं मर चुकी हैं. क्यों एक इंसान स्कूल बनवाने के लिए इस तरह अपनी जान गंवाने पर मजबूर हो गया? इस मौत का जिम्मेदार कौन है? ऐसे हजारों सवाल हैं जिनके जवाब शायद कोई नहीं देगा. आखिर एक अदने से इंसान की मौत ही तो हुई .......
बकौल दुष्यंत:
इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात,
अब किसी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां
1 टिप्पणी:
सवाल हमारे सामने मुंह खोले खड़े हैं। जवाब भी हमें ही ढूंढने होंगे!
समाज हमसे ही बना है!!
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